ढोर मरने के बाद महारवाड़ा में एक चेतना दौड़ जाती। उसमें भी बैल यदि कगार से फिसलकर मर गया तो आनन्द दुगुना। ऐसा बैल अधिक ताज़ा समझा जाता। जंगल में कहाँ ढोर मरा है, इसकी ख़बर महारवाड़ा पहुँचने में देर न लगती। आज के टेलेक्स से भी तेज़ गति से ख़बरे पहुँचतीं। आकाश में चील-गिद्ध विमान-जैसे एक ही दिशा में मँडराने लगते तो महारों को मालूम हो जाता कि खाना कहाँ पड़ा है। गिद्धों द्वारा खाने की बरबादी न हो, इसके लिए भागदौड़ मचती। गिद्ध भी कितने ! आसानी से पाँच-पचास का झुंड। पंख फड़फड़ाते। मुँह से मचाक्-मचाक् की आवाज़ें निकालते। अण्णाभाऊ साठे ने एक कथा में इन गिद्धों से मख़मली जैकेट पहने साहूकार-पत्र की उपमा दी है। पत्थर मारने पर थोड़ी दूर उड़ जाते परन्तु वेशर्मों-से फिर खाने की दिशा में सरकते। शायद उन्हें महार लोगों पर बड़ा क्रोध भी आता होगा। उनके मुँह से महार लोग कौर जो छीन लेते थे ! गिद्धों की हिंस्र आँखें, उनकी धारदार चोंच ! मुझे लगता, वे सब मेरा ही पीछा कर रहे हैं।
‘अछूत’ मराठी के दलित लेखक दया पवार का बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो पाठकों को न केवल एक अनबूझी दुनिया में अपने साथ ले चलता है बल्कि लेखन की नयी ऊँचाई से भी परिचित कराता है।
कथाकार दया पवार इस रचना के पात्र तथा भोक्ता दोनों ही हैं। इस उपन्यास में पिछड़ी जाति में जन्मे एक व्यक्ति की पीड़ाओं का द्रवित कर देनेवाला किस्सा-भर नहीं है, महाराष्ट्र की महार जाति का झकझोर देनेवाला अंदरूनी नक्शा है।
कथाकार ने छुटपन से वयस्क होने की संघर्ष-यात्राओं को बड़ी बारीकी से लेखनीबद्ध किया है। उसकी दृष्टि उन मार्मिक स्थलों पर अत्यन्त संवेदनशील हो जाती है, जो आभिजात्य तथा वादपरक आग्रहों के कारण उपेक्षित कर दिये जाते रहे हैं। यही कारण है कि इस रचना में वर्णित पिता मजबूत इंसान, समर्पित कलाकार, पिसता हुआ गोदी मजदूर और ओछा-चोट्टा सभी एक साथ हैं। माँ अत्यन्त अपमानजनक स्थितियों को नकारते हुए भी सभी कुछ को अनदेखा कर देती है। मित्रों, पड़ोसियों और आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोगों का जीवन कठोर होते हुए भी अत्यन्त रस-रंग भरा है। राजनीति में ह्वास का वातावरण मौजूद रहते हुए भी उसकी सार्थक भूमिका खोजी जा रही है।
‘अछूत’ साधारण लोगों की असाधारण गाथा है। आद्यंत पठनीय तथा मन को भीतर तक छू लेनेवाली रचना।
अछूत
जब कभी भी वह अकेला होता है, उससे अक्सर मेरी मुलाक़ात हो जाती है। जब से मैंने होश सँभाला है, तब से मैं उसे अच्छी तरह पहचानता हूँ। जितना अपनी परछाईं से परिचय हो, उतना परिचित है वह। पर कभी-कभी अँधेरा छा जाने पर या बदली छा जाने पर जैसे स्वयं की परछाईं लुप्त हो जाती है, वैसे ही वह भी लुप्त हो जाता है। पिछले कई वर्षों से उसे भीड़ से बड़ा लगाव रहा है। हमेशा किसी के साथ या सभा-सम्मेलनों में दिखाई देता है।
आज भी ऐसा ही हुआ। एक सभागृह में सामाजिक समस्याओं पर परिसंवाद आयोजित किया गया था। स्टेज पर प्रतिष्ठित लोग बैठे थे। उस भीड़ में वह भी सिकुड़कर बैठा था। जब उसकी बारी आती है, तब वह अपना विषय बड़े मनोयोग से प्रस्तुत करता है। अनेक लोग उसके प्रस्तुतीकरण की दाद देते हैं। कुछ लोग तालियाँ भी बजाते हैं। सभा समाप्त होती है। उसके चारों ओर मँडराने वाले चेहरे गायब हो जाते हैं। मेरे पास आकर वह कहता है, ‘‘मेरा भाषण कैसा रहा ?’’
‘‘बहुत अच्छा भाषण दिया तूने। पर एक बात तो बता ? तू कभी ख़ुश नहीं दिखता ? हमेशा परेशान-सा लगता है !’’
‘‘लगता है, तूने मुझे बहुत दिनों बाद आड़े हाथों लिया है। अरे, आज तक मैंने तुझसे छिपाया ही क्या है ?’’
‘‘तुम्हारा एक प्रोफ़ेसर दोस्त तुम्हें ‘दलित ब्राह्मण’ कहकर गाली देता है !’’
‘‘उसके कहने में सत्यांश है। ऊपरी तौर पर देखने से कोई भी कहेगा, मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। वह भी ऑडिटर की। माई-बाप सरकार ने, किराये का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पढ़ी-लिखी पत्नी है। दो लड़कियाँ पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पाँच-छह साल का लड़का हाथों-कन्धों पर नाच-फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई है। पिछले साल ही उसे लड़का भी हुआ। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। मुझे देखकर ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।’’
‘‘फिर भी तू उदास रहता है ? क्या खो गया है तुम्हारा ?’’
‘‘उस गुरखे लड़के की कथा मालूम है तुम्हें ? उसकी टोपी गुम हो गई थी !’’
मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोला, ‘‘एक गुरखे की टोपी गुम हो गई थी। लड़के को टोपी की याद आई। खाते-पीते उसे टोपी ही दिखती। इसको लेकर वह सदैव बेचैन रहता। एक दिन हमेशा की तरह वह जंगल में ढोर चराने गया। जंगल में शहर से आया एक प्रेमी-युगल प्रेमालाप कर रहा था। गुरखा उनका संवाद सुनता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की आँखों में झाँकते हुए कहता है, ‘हे प्रिये, मुझे तुम्हारी आँखों से चाँद, सूरज, फूल, सागर, सुहानी शाम का नन्दनवन दिखाई दे रहा है।’ चोरी से संवाद सुननेवाला गुरखा आगे बढ़कर पूछता है, ‘अरे, ज़रा देखना भाई, मेरी गुम टोपी उन आँखों में कहीं दिखाई देती है ?’’
‘‘दार्शनिकों का मुखौटा पहन इस तरह मत बको। ठीक-ठीक बताओ, क्या हुआ ? सीधे-सीधे क्यों नहीं बताते।’’
‘‘कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे ? वह सारा क्या एक दिन का है ? पूरे चालीस साल की ज़िन्दगी का जीवित इतिहास है...रात में कौन-सी सब्ज़ी खाई, आज याद नहीं रहता। वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूँ। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका, नहीं तो सिर फटवाकर मरने की बात थी। मुझे एक भी बच्चे की जन्म-तिथि याद नहीं। पत्नी ही उनके जन्म-दिनों की याद दिलाती है।’’
‘‘पर तू कैसे बड़ा होता गया, किसकी गोद में तुम्हारी परवरिश हुई, यह सब बताने में क्या एतराज है ?’’
‘‘ठीक है। जैसा याद आए, बताता हूं...।’’
कोंडवाला [काँजीहाऊस] में मेरी पसन्द की एक कविता है :
सागर में हिमखंड ज्यों डूबकर बचे
ठीक उसी तरह ये दुख
शिखर लाँघ-लाँघकर आते हैं
यादों की दाहक बूँदें
शरीर पर तेजाब छिड़कने-सी
आग दहका जाती हैं
काँधे पर ज़िन्दगी का यह सलीब
तुमने खुल्लमखुल्ला हाथ झटक लिये हैं
अब भूतकाल की खाल खींचकर
साफ़ चेहरे से कैसे घूमा जा सकता है।
यह कविता मुझे अपनी ही उम्र का आईना लगती है। मेरा चेहरा इस तरह जमा गुआ ज्यों समुद्र में कोई हिमखंड डुबोया हो। उसका सिर, शिखर लोगों को दिखता है। इसके आधार पर लोगों के तर्क-विर्तक। मैंने जो भूतकाल भोगा है, वह सागरमें पोसा-पाला गया बर्फ़ के पहाड़-सा विशाल-विस्तृत है। जब से मुझमें समझ आई है, तब से वह मुझे चकमा दे रहा है। इसे पकड़ते समय प्राण काँपने लगते हैं। काफ़ी दिनों तक तो ऊपरी सतक पर दिखनेवाले इसी शिखर पर मोहित हुआ। अनेक बार शॉक दिया। अब कुदा