प्राचीन काल से ही, नाना प्रकार के कामनाओ के पूर्ति हेतु, नाग जाती या सर्पो की, हिन्दू, बौद्ध, सिख तथा जैन धर्म में पूजा होती हैं। सर्पो तथा नागो की नाना प्रजाति ने, देवताओं की कठिन साधना, तपस्या की तथा उन के निकट का ही विशेष पद भी प्राप्त किया। जैसे, भगवान शिव, देवी तारा, काली इत्यादि के आभूषण सर्प या नाग हैं, भगवान विष्णु भी, सर्वदा शेष नाग की शय्या पर शयन करते हुए, सम्पूर्ण जगत का पालन पोषण करते हैं। परिणामस्वरूप सर्प जाती भी कई प्रकार के अलौकिक शक्तिओ से सम्पन्न हैं तथा नाना प्रकार के कामनाओ की पूर्ति हेतु, इनकी पूजा की जाती हैं। विशेषकर सर्प दंशन के चिकित्सा हेतु, सर्प भय से रक्षा हेतु, इनकी साधना करने का विधान हैं। कद्रु जो प्रजापति दक्ष की कन्या हैं तथा कश्यप मुनि की पत्नी, से सम्पूर्ण सर्प जाती का जन्म हुआ हैं, तभी वे नाग माता के नाम से जानी जाती हैं। देवी मनसा, जो भगवान शिव की बेटी हैं, उन्हें भी नाग माता कहा जाता हैं, जिनका विवाह जरत्कारु नाम के ऋषि के साथ हुआ था। एक समय राजा जनमेजय द्वारा, अपने पिता के सर्प दंश से मृत्यु हो जाने पर, सर्पो को भस्म कर देने वाला सर्प यज्ञ हुआ। परिणामस्वरूप सभी सर्प, यज्ञ में गिर कर भस्म होने लगे, तदनंतर देवी मनसा के पुत्र आस्तिक द्वारा, ऐसा उपाए किया गया, जिससे सर्प यज्ञ बंद हुआ तथा सभी सर्पो की रक्षा हुई, तभी से देवी मनसा भी नाग माता के नाम से विख्यात हैं। सर्प प्रजाति के मुख्य १२ सर्प हैं जीने के नाम; १. अनंत २. कुलिक ३. वासुकि ४. शंकुफला ५. पद्म ६. महापद्म ७. तक्षक ८. कर्कोटक ९. शंखचूड़ १०. घातक ११. विषधान १२. शेष नाग।