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मधुमेह पर ‘आयुर्वेद’ का मत
हरीश गौड़

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान ने त्रिदोष के कारण मधुमेह (शुगर) की उत्पत्ति मानी है। अर्थात कफ, पित्त तथा वायु के शरीर में संतुलन बिगड़ने से यह रोग उत्पन्न होता है। कई बार पेट की ख़राबी अपच आदि से रोग की स्थिति ज़्यादा ख़राब हो जाती है। वैसे प्रमेह (धातु रोग) 20 प्रकार के माने गए हैं, जिनमें से एक मधुमेह है। इसमें शिलाजीत, कारबेल्लक, सप्तचक्रा, बिम्बी, विजयसार की लकड़ी, मेथी दाना, गुड़मार बूटी आदि औषधियों का प्रयोग किया जाता है।
शिलाजीत  एक प्रकार का पत्थर से निकला हुआ पदार्थ है जो कि अत्यंत शक्तिशाली होता है। यह तासीर से गर्म एवं ख़ुश्क़ है। इसे आयुर्वेद में रसायन गुण वाली यानी टॉनिक का नाम दिया गया है। यह सभी प्रकार के प्रमेहों में लाभ करती है जिसमें से मधुमेह भी एक है। आयुर्वेद मतानुसार शिलाजीत मधुमेह से होने वाली शारीरिक क्षति से बचाती है। अर्थात् मधुमेह के कारण जो शरीर के अंगों को नुक़सान होता है उस क्षति की पूर्ति करती रहती है जिससे प्रमहों या मधुमेह से नुक़सान नहीं हो पाता। परन्तु यह औषधि पित्त प्रकृति के मनुष्य को ज़्यादा नहीं लेनी चाहिए। यह कफ  एवं वात प्रकृति के लोगों को अधिक लाभ देती है।
कारबेल्लक जिसको हिन्दी में करेला और अंग्रेजी में बिटर गॉर्ड कहते हैं, मधुमेह रोग में अच्छा लाभ करता है। इसके फल में ऐसकोर्बिक ऐसिड होता है। इसके फलों एवं पत्तों में मोसोर्डिकिन नामक क्षार पाया जाता है। इसके पौधे में ग्लुकोसाईड, एक राल तथा सुगंधित तेल पाया जाता है। यह मधुमेह में उत्तम कार्य करता है। इससे रक्तगत शर्करा कम होती है। यकृत तथा आमाशय की क्रिया सुधरती है तथा अग्नाश्य (पैनक्रियाज) को उत्तेजित कर इन्सुलिन के स्त्राव को  बढ़ाता है। करेले के जूस की मात्रा 10-20 मिली लीटर लेने से लाभ होता है तथा करेले के अतियोग से उपद्रव होने पर चावल और घी खिलाना चाहिए।
सप्तक्रिया जिसको अंग्रेजी में हिप्पोक्रेटिएसी Hippocrateacei कहते हैं, इसके क्वाथ (Decoction) की मात्रा 50-100 मिली लीटर ली जाती है। इसका प्रयोग मधुमेह में किया जाता है। इससे मूत्र कम आता है तथा रक्त में शर्करा की मात्रा भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त रोगी के स्वास्थ्य को सुधारती है। ऐसा ‘द्रव्य गुण विज्ञान’ नामक पुस्तक में लिखा है। बिम्बी नामक औषधि भी मधुमेह में लाभ करती है। इसके पत्रों या जड़ का स्वरस दिया जाता है जिसकी मात्रा 10-20 मिली लीटर है। विजयसार की लकड़ी को बर्तन में रात को पानी में रखकर सुबह खाली पेट पीने से मधुमेह में सतवर लाभ होता है।
मेथी दानों को रात्रि में पानी में भिगोकर सुबह खाने एवं उस पानी को पीना मधुमेह रोगी के लिए हितकारी है।
गुड़मार बूटी जिसे मेषशृंगी भी कहते हैं, मधुमेह में अच्छा कार्य करती है। यह लीवर एवं आमाशय ग्रंथियों के लिए उत्तेजक है। यह पैनक्रियाज़ ग्रंथियों की कोशिकाओं को उत्तेजित कर इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाती है। यह मूत्रल होने के कारण रक्त की अम्लता को ठीक करती है।
‘ब्राह्मी’ जल के किनारे छत्तों के रूप में पैदा होने वाली अत्यन्त गुणकारी बूटी है। यह बूटी आमतौर पर सारे भारतवर्ष में पाई जाती है लेकिन हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण के मार्ग में पाई जाने वाली ब्राह्मी विशेष गुणकारी मानी गई है। अंग्रेजी में इसे इण्डियन पेनीवर्ट के नाम से जाना जाता है। इस वनस्पति की डालियाँ या शाखाएँ ज़मीन पर ही फैलती हैं। इन शाखाओं के प्रत्येक  गठान में से जड़ निकलकर ज़मीन में घुस जाती है। इसमें वसन्त ऋतु से लेकर ग्रीष्म ऋतु तक फूल और फल लगते हैं। इसके फूल सफेद और नीली झाईं लिए होते हैं। इसका स्वाद कड़वा होता है। इसी बूटी से मिलती-जुलती एक अन्य बूटी मंडूकपर्णी होती है परन्तु ब्राह्मी एवं मंडूकपर्णी में भेद यह है कि मंडूकपर्णी के पत्ते ब्राह्मी के पत्तों की अपेक्षा गोल होते हैं।

ब्राह्मी के गुण-दोष एवं प्रभाव
आयुर्वेदिक ग्रंथ ‘भाव प्रकाश निघन्टू’ के अनुसार ब्राह्मी शीतल, हल्की, सारक, मेधाकारक (बुध्दि वर्धक) कसैली, कड़वी, आयुवर्धक रसायन, स्वर एवं कंठ को उत्तम करने वाली, स्मरण शक्ति बढ़ाने वाली, कुष्ठ, पांडु, प्रमेह, रक्त विकार, खाँसी, विष, सूजन और ज्वर को हरने वाली होती है।
निघंटू रत्नाकर के मतानुसार ब्राह्मी शीतल, कसैली, कड़वी, बुध्दिदायक, हृदय को हितकारी, स्मरणशक्ति वर्धक, रसायन, विष, कोढ़, पांडु रोग, सूजन प्लीहा, पित्त अरुचि, श्वास, शोष, कफ  एवं वात को दूर करती है।
ब्राह्मी के रासायनिक विश्लेषण करने पर इसमें से ब्रहीन नामक एक विषैला उपक्षार प्राप्त किया जाता है जो कि कुचले में पाये जाने वाले स्ट्रिकनाईन से मिलता-जुलता है। इसकी थोड़ी सी ही मात्रा शरीर में रक्त भार बड़ा देती है। हृदय की पेशियों को उत्तेजित करती है। श्वास क्रिया प्रणाली, गर्भाशय एवं छोटी आँत को भी इसकी अत्यंत थोड़ी मात्रा उत्तेजित करती है। सन् 1931 में डॉ.के.सी.बोस एवं एन.के.बोस ने इसका रासायनिक  विश्लेषण किया था।
ब्राह्मी विशेष रूप से मस्तिष्क संबंधी रोगों में विशेष रूप से फायदेमंद पाई  गई है। ब्राह्मी की मुख्य क्रिया मस्तिष्क एवं मज्जा तंतुओं पर होती है। यह मस्तिष्क को शान्ति और मज्जा को ताक़त देता है। इसलिए ब्राह्मी का प्रयोग मस्तिष्क एवं मज्जा तंतुओं के रोगों में करते हैं। अधिक  मानसिक परिश्रम  करने वाले लोगों को यह बूटी विशेष लाभकारी पाई गई है। मस्तिष्क की थकान एवं उन्माद में यह विशेष लाभ दर्शाती है। नवीन रोगों में इसका प्रयोग कम किया जाता है परन्तु पुराने उन्माद एवं अपस्मार में मस्तिष्क को पुष्ट करने में इसका कार्य बेहतर है।
ब्राह्मी जहाँ मस्तिष्क संबंधित रोगों को ठीक करती है वहीं कुछ कब्ज़ियत पैदा करने का भी दोष रखती है इसलिए इसका प्रयोग करते समय मृदु बिरेचक (हल्की दस्ता
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‘ब्राह्मी’ जल के किनारे छत्तों के रूप में पैदा होने वाली अत्यन्त गुणकारी बूटी है। यह बूटी आमतौर पर सारे भारतवर्ष में पाई जाती है लेकिन हरिद्वार से लेकर बद्रीनारायण के मार्ग में पाई जाने वाली ब्राह्मी विशेष गुणकारी मानी गई है। अंग्रेजी में इसे इण्डियन पेनीवर्ट के नाम से जाना जाता है। इस वनस्पति की डालियाँ या शाखाएँ ज़मीन पर ही फैलती हैं। इन शाखाओं के प्रत्येक  गठान में से जड़ निकलकर ज़मीन में घुस जाती है। इसमें वसन्त ऋतु से लेकर ग्रीष्म ऋतु तक फूल और फल लगते हैं। इसके फूल सफेद और नीली झाईं लिए होते हैं। इसका स्वाद कड़वा होता है। इसी बूटी से मिलती-जुलती एक अन्य बूटी मंडूकपर्णी होती है परन्तु ब्राह्मी एवं मंडूकपर्णी में भेद यह है कि मंडूकपर्णी के पत्ते ब्राह्मी के पत्तों की अपेक्षा गोल होते हैं।

ब्राह्मी के गुण-दोष एवं प्रभाव
आयुर्वेदिक ग्रंथ ‘भाव प्रकाश निघन्टू’ के अनुसार ब्राह्मी शीतल, हल्की, सारक, मेधाकारक (बुध्दि वर्धक) कसैली, कड़वी, आयुवर्धक रसायन, स्वर एवं कंठ को उत्तम करने वाली, स्मरण शक्ति बढ़ाने वाली, कुष्ठ, पांडु, प्रमेह, रक्त विकार, खाँसी, विष, सूजन और ज्वर को हरने वाली होती है।
निघंटू रत्नाकर के मतानुसार ब्राह्मी शीतल, कसैली, कड़वी, बुध्दिदायक, हृदय को हितकारी, स्मरणशक्ति वर्धक, रसायन, विष, कोढ़, पांडु रोग, सूजन प्लीहा, पित्त अरुचि, श्वास, शोष, कफ  एवं वात को दूर करती है।
ब्राह्मी के रासायनिक विश्लेषण करने पर इसमें से ब्रहीन नामक एक विषैला उपक्षार प्राप्त किया जाता है जो कि कुचले में पाये जाने वाले स्ट्रिकनाईन से मिलता-जुलता है। इसकी थोड़ी सी ही मात्रा शरीर में रक्त भार बड़ा देती है। हृदय की पेशियों को उत्तेजित करती है। श्वास क्रिया प्रणाली, गर्भाशय एवं छोटी आँत को भी इसकी अत्यंत थोड़ी मात्रा उत्तेजित करती है। सन् 1931 में डॉ.के.सी.बोस एवं एन.के.बोस ने इसका रासायनिक  विश्लेषण किया था।
ब्राह्मी विशेष रूप से मस्तिष्क संबंधी रोगों में विशेष रूप से फायदेमंद पाई  गई है। ब्राह्मी की मुख्य क्रिया मस्तिष्क एवं मज्जा तंतुओं पर होती है। यह मस्तिष्क को शान्ति और मज्जा को ताक़त देता है। इसलिए ब्राह्मी का प्रयोग मस्तिष्क एवं मज्जा तंतुओं के रोगों में करते हैं। अधिक  मानसिक परिश्रम  करने वाले लोगों को यह बूटी विशेष लाभकारी पाई गई है। मस्तिष्क की थकान एवं उन्माद में यह विशेष लाभ दर्शाती है। नवीन रोगों में इसका प्रयोग कम किया जाता है परन्तु पुराने उन्माद एवं अपस्मार में मस्तिष्क को पुष्ट करने में इसका कार्य बेहतर है।
ब्राह्मी जहाँ मस्तिष्क संबंधित रोगों को ठीक करती है वहीं कुछ कब्ज़ियत पैदा करने का भी दोष रखती है इसलिए इसका प्रयोग करते समय मृदु बिरेचक (हल्की दस्ता
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