प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने आराध्य के चरणों में
परम पूज्य गुरुदेव ने जो गुरुत्तर भार कन्धों पर डाला, उनमें अपने वेदों का आज के परिप्रेक्ष्य में बुद्धिसंगत एवं विज्ञानसम्मत प्रतिपादन सर्वथा दुःसाध्य कार्य था। लोगों के पास योग्यता रहती होगी, जिससे वे बड़े-बड़े कार्य सम्भव कर पाते होंगे; पर मुझ अकिंचन के लिए तो यह सौभाग्य ही क्या कुछ कम था कि अपने आराध्य के चरणों पर स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करने का सन्तोष प्राप्त हुआ। होंठ कौन से गीत निकालेंगे, भला बाँसुरी को क्या पता ? कौन सा राग आलापित होगा—यह पता वादक को हो सकता है, सितार बेचारा उसे क्या समझे ?
वेदों के भाष्य जैसे कठिन कार्य में मेरी स्थिति ऐसे ही वाद्य यंत्र की रही। यदि गायन सुन्दर हो तो श्रेय उन्हीं को मिलना चाहिए, जिन्होंने इस भाषानुवाद प्रारम्भ (सन् 1960 ई.) में किया और दुबारा करने का आदेश मुझे दिया। कलम मेरी हो सकती है, पर चलाई उन्होंने ही। अक्षर मेरे हो सकते हैं, पर भावाभिव्यक्ति एक मात्र उन्हीं की है।
आज यह सुरभित पुष्प अपने उन्हीं आराध्य गुरुदेव-आचार्य जी के चरणों में समर्पित कर स्वयं को कृत्य-कृत्य हुआ अनुभव करती हूँ।
जिन मनीषियों के ग्रन्थ हमने इस अवधि में पढ़े, उनसे कुछ दिशा बोध मिला, उनका तथा जिन्होंने इस गुरुतर कार्य के संकलन से प्रकाशन तक में सहयोग दिया, उनका मैं विशेष रूप से आभार मानती हूँ। आशा करती हूँ कि इस सृजन से अपनी संस्कृति और इस महान् देश की विराट् बौद्धिक, आत्मिक तथा आध्यात्मिक सम्पदा गौरवान्वित होगी।